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व्यंग्य

निठारी चलो

राजकिशोर


निठारी का संदेश आ गया है। यह संदेश देश भर के अमीरों और उनके आज्ञापालक नौकरों के लिए है। निठारी चलो। शहरीकृत नोएडा में बसा और उससे भी ज्यादा शहरीकृत दिल्ली के बिल्कुल करीब यह एक छोटा-सा गाँव है, जहाँ घरेलू नौकर-नौकरानियाँ, दिहाड़ी मजदूर, कम आमदनी की छोटी-छोटी नौकरियाँ करने वाले, ड्राइवर, कुली आदि तरह-तरह के गरीब और बेबस लोग रहते हैं। उनके बीच एक बड़ी-सी कोठी है, जिसके भीतर क्या-क्या होता है, इसका बाहर से अंदाजा नहीं लगाया जा सकता। लेकिन सिर्फ इसी वजह से इस कोठी का रहस्य दो साल तक समाज से छिपा रहा, ऐसा नहीं कहा जा सकता। इस कोठी में एक पैसे वाला रईस रहता था, जो अपने पासपोर्ट का उपयोग साल में कई बार किया करता था - यह जानने के लिए कि विश्व के अन्य विकसित देशों में ऐयाशी के समकालीन प्रतिमान क्या हैं और अपने भूमण्डलीकृत ऐयाश दोस्तों को यह दिखाने के लिए भी कि वह भारत के एक ऐसे सुरक्षित कोने में रहता है, जहाँ अपने मौज-मजे के लिए बच्चे-बच्चियों के जिन्दा और मृत मांस के साथ कैसा भी सलूक किया जा सकता है और फिर उनके कंकालों को सड़ कर मिट्टी में मिल जाने के लिए घर के पिछवाड़े गाड़ दिया जा सकता है। नोएडा नामक इस तीव्र वृद्धि दर वाले इलाके में पुलिस तो है, पर गरीब-असहाय लोगों पर लाठी भाँजने के लिए और किसी अमीर के खिलाफ खौफनाक शिकायतें मिलने पर दो-ढाई लाख रुपए लेकर उसे अपनी जघन्य दैनंदिनी में लग जाने देने के लिए। उदारीकरण का ऐसा उदार परिदृश्य और कहाँ मिलेगा? चलो, निठारी चलो, जहाँ कई राष्ट्रीय समस्याओं के समाधान स्पष्ट रूप से दिखाई पड़ रहे हैं। उत्तर प्रदेश एक बार फिर देश का मार्गदर्शन करने के लिए उठ खड़ा हुआ है।

इस तरह के सर्वेक्षण आते ही रहते हैं कि भारत में बालक-बालिकाओं की स्थिति बहुत ही खराब है। कोई उनके कुपोषण पर रोता है, कोई उनके स्कूल न जाने पर। किसी की चिन्ता यह है कि बच्चों के खेलने के खुले मैदान कम होते जा रहे हैं। बँधुआ मजदूरी के मोर्चे पर काम करने वाले लोग अलग से परेशान रहते हैं। निठारी ने इन सभी समस्याओं का एकमुश्त समाधान पेश कर दिया है। यह वही समाधान है जो एक समय में प्रसिद्ध आयरिश लेखक और व्यंग्यकार जोनाथन स्विफ्ट ने आयरलैंड के बच्चों की दुर्दशा और इंग्लैण्ड की गरीबी दूर करने के लिए सुझाया था। यह समाधान विश्व बैंक की नीतियों के बहुत अनुकूल है। विकासमान देशों के लिए तो इसे वरदान ही मानना चाहिए। समाधान यह है कि गरीब बच्चों की किस्मत पर राष्ट्रीय विलाप करने की बजाय अर्थव्यवस्था के विकास में उनका सकारात्मक उपयोग किया जाना चाहिए। इसके लिए कोई बड़ा इंफ्रास्ट्रक्चर भी नहीं चाहिए कि हमें विदेशी प्रत्यक्ष निवेश का आह्वान करना पड़े, जिसमें चीन हमसे बाजी मार ले जा रहा है। धंधा बहुत ही सरल और हमारे राष्ट्रीय संसाधनों के दायरे में है : चौदह वर्ष तक के बच्चे-बच्चियों को बूचड़खानों में हलाल कर उनका मांस खुले बाजार में बेचा जाए।

इस कारोबार से जो आय होगी, उसका एक हिस्सा बच्चों की माताओं को दिया जाएगा, तो उनका अपना जीवन स्तर भी ऊपर उठेगा और वे प्रचुर संख्या में बच्चे पैदा कर सकेंगी। बच्चों के पालन-पोषण के लिए राज्य या व्यापारियों से मिलने वाले भत्ते का उपयोग कर माताएँ इन बच्चों को स्वस्थ, पुष्ट और तरो-ताजा भी रख सकेंगी, ताकि इनका मांस और लजीज तथा विटामिनों, लवणों और खनिजों से भरपूर हो सके। इस तरह एक ही तीर से कई शिकार किए जा सकेंगे। नोएडा, दिल्ली और देश के अन्य इलाकों की सड़कों पर नंग-धड़ंग और कुपोषित बच्चे नहीं दिखेंगे। उनके माता-पिताओं को घर बैठे रोजगार मिलेगा और देश की अर्थव्यवस्था का तीव्रतर विकास संभव हो सकेगा। हम भारत से पशु-पक्षियों के मांस का निर्यात तो करते ही हैं। इसमें गोमांस भी शामिल है। निठारी ने दिखा दिया है कि मांस के हमारे निर्यात में एक और लजीज आइटम जोड़ा जा सकता है और वह है बच्चे-बच्चियों का कोमल मांस।

इसमें कोई संदेह नहीं कि ऐसा करने पर निर्यात से होने वाली हमारी आय कई गुना बढ़ जाएगी। इस मामले में पश्चिम के देश हमसे प्रतिद्वंद्विता नहीं कर सकेंगे। उनके यहाँ एक बच्चे को जन्म देने और बारह-चौदह वर्ष तक उसका पालन-पोषण करने का औसत खर्च हमसे कई गुना ज्यादा है। फिर हमारे यहाँ गरीबों की संख्या भी कम नहीं है। वे बहुत मामूली लागत पर बाल मांस के व्यापार और निर्यात के लिए कच्चा माल तैयार करने के लिए सहमत हो जाएँगे। तमाम सरकारी प्रयत्नों के बावजूद हमारी आबादी बढ़ती जा रही है। निठारी का रास्ता अपनाने पर यह समस्या भी अपने आप सुलझ जाएगी।

भारत के लोग अपने को विश्व गुरु मानते हैं। निठारी के पुरुषार्थ को देखकर मुझे इसमें कोई संदेह नहीं रह गया है। निठारी का नायक जोनाथन स्विफ्ट के प्रिस्क्रिप्शन से भी आगे बढ़ गया है। उसने दिखा दिया है कि बाल मांस का व्यापार करना तो इस उद्योग का मात्र एक पहलू है। दूसरा पहलू इससे भी ज्यादा रोमांचक और कमाऊ हो सकता है। बच्चे-बच्चियों की जान लेने के पहले उनका भरपूर यौन उपभोग क्यों न कर लिया जाए! व्यावसायिक यौन शोषण की दुनिया में इन दिनों बच्चे-बच्चियों की अच्छी-खासी माँग है। गोवा में पर्यटकों का यह एक पसंदीदा शगल है। निठारी का रास्ता राष्ट्रीय स्तर पर अपना लिया जाए तो बाल वेश्यावृत्ति के क्षेत्र में हम विश्व कीर्तिमान बना सकते हैं।

इसका एक सकारात्मक परिणाम यह होगा कि वयस्क स्त्री-पुरुषों के यौन शोषण में कमी आ जाएगी। बाल भवन के इर्द-गिर्द भीड़ बढ़ेगी, तो जीबी रोड की आबादी अपने आप कम हो जाएगी। लेकिन इसके लिए जरूरी होगा कि बच्चे-बच्चियों के यौन उपभोग की कीमत कम रखी जाए। उदारीकरण के समर्थक अर्थशास्त्रियों की दलील है कि भारत में टैक्स की दरें बहुत ऊँची हैं। अतः केन्द्र सरकार, दिल्ली सरकार और दिल्ली नगर निगम को लालच में न पड़ कर बालक-बालिकाओं के उपभोग पर टैक्स की दर कम ही रखनी चाहिए। बेहतर हो कि कम से कम पाँच वर्षों तक इस उद्योग को कर-मुक्त घोषित कर दिया जाए।

नादान हैं वे जो मोनिंदर सिंह और उसके सहयोगियों को कड़ी से कड़ी सजा देने की माँग कर रहे हैं। उनका दिमाग परंपरावादी है। नए जमाने की माँग यह है कि मोनिंदर को योजना आयोग का अध्यक्ष और उसके नौकर सुरेन्द्र को राष्ट्रीय मांस उत्पादन परिषद का अध्यक्ष या पर्यटन, खेलकूद और संस्कृति मंत्रालय का सचिव बना दिया जाए।

निठारी चलो। वहाँ भारत का भविष्य हमारी प्रतीक्षा कर रहा है।


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